भारतीय लघु चित्रकला अजंता शैली, अपभ्रंश शैली और पाल शैली

भारतीय लघु चित्रकला अजंता शैली, अपभ्रंश शैली और पाल शैली

 
भारतीय लघु चित्रकला

भारतीय लघु चित्रकला अजंता शैली, अपभ्रंश शैली और पाल शैली

कला के संदर्भ में शैली शब्द का प्रयोग ,चित्रकार द्वारा उसके विशिष्ट मार्ग के अर्थ में लिया गया ।इस शब्द को संस्कृत भाषा में रीति कहा गया ।औद्योगिक क्रांति के पूर्व की ऐसी सभी शैलियां पीरियड स्टाइलिश या समयावधि शैली के अंतर्गत आती रही हैं जैसे अजंता शैली ,मुगल शैली ,राजस्थानी शैली परंतु औद्योगिकीकरण के संदर्भ में समूह से भटक निजी चिंता में डूबा व्यक्ति अब अपने तक ही सीमित निजी शैली का निर्माण करता है और जागरण के अनेक चित्रों का कार्य भिन्न प्रकार का रहा है।

राधा कृष्ण का विषय एक ही शैली में अनेक बार चित्रित हुआ है तथा एक ही समय की विभिन्न शैली में भी चित्रित हुआ परंतु प्रत्येक चित्र में भी नेता है जो कलाकार के अपने मस्तिक और विशेषता के कारण संभव है।


अजंता शैली


अजंता शैली

अजंता शैली का विकास सिंह कुशवाह गुप्त वाकाटक तथा चालुक्य वंश के शासकों के शासनकाल में हुआ अनेक विद्वानों ने जनता से लिखो भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा राय कृष्णदास ने इस शैली को गुप्त राजाओं के भारी प्रभाव के कारण इस शैली को गुप्त कला या गुप्त शैली के नाम से पुकारा है।

पर्सी ब्राउन ने धर्म के आध्यात्मिकता से संबंधित होने के कारण बौद्ध कला के नाम से पुकारा है तथा साथ ही साथ इस शैली को 3 वर्गों में विभाजित किया-

वर्णनात्मक शैली

अलंकारिक शैली

रूप वैदिक शैली


अजंता शैली की विशेषताएं निम्न वत हैं-

रेखा

अजंता की रेखाओं का बड़ी कुशलता से अंकल हुआ है यह रेखाएं सचिव व गतिमान है यहां पर सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव भी सफलता से व्यक्त करने में सक्षम है कोमलता के साथ-साथ रेखाओं में अटूट प्रवाह है।

रंग

अजंता का रंग विधान सादा है। हरे रंग का प्रयोग अत्यंत ही सुंदर है। रंग चमकीले हैं। कुछ आकृतियों में गुलाबी तथा भूरा रंग भरा गया है सिंदूरी रंग का भी प्रयोग किया गया है।

काल्पनिक परिप्रेक्ष्य

अजंता के चित्रों में अनेक स्थानों पर विभिन्न समूहों के दृश्य को एक ही चित्र में अंकित कर दिया गया है। ऐसा होने पर भी दर्शकों को कोई अस्वाभाविकता अथवा कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता है। अजंता में बहुत देशीय परिप्रेक्ष्य का पालन हुआ।

आकृति

आकृतियों में शरीर के विभिन्न भागों में से एक प्रकार का समन्वय उत्पन्न किया गया। जिसमें लयात्मक सौंदर्य का बोध होता है।


नारी चित्रण


अजंता के कलाकारों ने नारी के विभिन्न रूपों को सुंदर ढंग से चित्रित किया है महारानी माया देवी का चित्र प्रसिद्ध है राहुल समर्पण चित्र में बुध की पत्नी यशोधरा अपने पुत्र राहुल को तथागत चरणों में समर्पित करती दिखाई गई है। इस प्रकार इस चित्र में त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। स्त्री सहचारी माता प्रेमिका और प्रेयसी के साथ-साथ नर्तकी सेविका आदि रूपों में चित्रित किया गया है।


स्वभाव चित्रण की बारीकी


चित्रकारों ने स्वभाव चित्र बड़ी खूबी से चित्रित किए हैं। मनुष्य ही नहीं पशु पक्षियों का चित्रण भी स्वभाव पूर्ण चित्रित किया गया है।


मुद्राएं


मुद्राओं में हाथ पैर की मुद्राएं बड़ी सुंदरता एवं सजीवता से चित्रित की गई हैं। इसी प्रकार पैरों की मुद्राओं का चित्रण चलने बैठने खड़े होने आदि भावों में दिखाया गया है। अजंता की मुद्रा सुंदर भावों को सजीवता प्रदान करती हैं।


केंद्रीय संयोजन

अजंता मुख्य आकृति को मध्य में तथा दूसरी आकृतियों से कुछ बड़ा बनाया गया जिसमें देखने वालों की दृष्टि मुख्य आकृति पर आसानी से पहुंच जाती है।


धार्मिकता

अजंता के चित्र में बौद्ध धर्म की अधिक छाया है अधिकतर चित्र प्रसन्न मुद्रा में चित्रित किए गए हैं बुद्ध का चित्र आश्चर्यचकित दिखाया गया है।


अलंकरण

अजंता की चित्रकला में मुकुटों वस्त्रों तथा आभूषणों में अलंकरण हुआ है इसमें मछली मकर हाथी हंस तोता कमल हिरण बैल तथा विभिन्न प्रकार के फूल दृष्टिगोचर होते हैं।


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पाल शैली


पाल शैली


स्थानेश्वर के राजा हर्ष व गौड़ के राजा शशांक के बाद मगध व बंगाल पर किसी गोपाल ने पाल राजवंश की स्थापना की गोपाल के पुत्र धर्मपाल ने इस राज्य की अनेक प्रकार से उन्नति । उसने भागलपुर में गंगा के किनारे विक्रमशिला विश्वविद्यालय बनवाया था धर्मपाल का समय 810 माना जाता है धर्मपाल का पुत्र देपालपुर आया मूर्ति वास्तु व चित्रों का महानायक सिद्ध हुआ इसी समय सारनाथ नालंदा गया कुर्किहार आदि स्थानों पर मूर्तियां वर्क एरिया बनी रामपाल पाल वंश का अंतिम शासक था उसने बंगाल एवं कामरूप पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।

पाल शैली का नामकरण

पाल राजा बौद्ध धर्म के महान संरक्षक थे। उन्होंने इस धर्म का विकास किया । इसकी संस्कृति की शाखाएं तिब्बत तथा दक्षिणी पूर्वी देश में फैल गई इन्हीं पाल राजाओं के श्याम आश्रय में बौद्ध धर्म का अनुयाई जिस चित्रकला का युद्ध हुआ वह पाल चित्र शैली का भाई प्रसिद्ध कला समीक्षक हेलन रूबीसो इस शैली को बिहार शैली कहते हैं इस शैली का विकास उत्तर प्रदेश बिहार उड़ीसा बंगाल नेपाल आदि क्षेत्रों में होने के कारण इसे मात्र बिहार प्रदेश से नहीं जोड़ा जा सकता है।

पाल शैली के भित्ति चित्र

नालंदा में चैत्य गुफा संख्या 16 मंदिर के अंदर मूर्ति के आसन मालाओं पर चित्र मिले हैं। जिनमें मृग व सिंह बने हैं। 1974 में नालंदा के एक टीले की खुदाई में बौद्ध प्रार्थना भवन मिला जिसमें 10 वीं सदी के भित्ति चित्र भी है।


पाल शैली के चित्रों की विशेषताएं:

  1. पाल शैली के प्रारंभिक चित्तौड़ पात्र पर बने और बाद में नेपाल में 10 12 फीट के पट चित्र भी इसी शैली में बने हैं।
  2. इस शैली में अजंता की परंपरा दिखाई देती है। आकृतियां कोमल तथा मांसल युक्त हैं। मुद्राओं तथा भाव भंगिमा ओं में भी वही लोच है।
  3. प्रधान आकृतियों के अतिरिक्त पृष्ठभूमि में अधिक काम नहीं किया गया है।
  4. इस शैली में भित्ति चित्रण की विशेषताएं संक्षेप में दिखाई देती हैं साथ ही आकृतियों की जकड़न सवा चश्मा चेहरे की अधिकता नाक का मुख के अनुपात में लंबा होना। इन चित्रों में चमकदार लाल नीले सफेद पीले और काले रंगों का प्रयोग किया गया है।





अपभ्रंश शैली


अपभ्रंश शैली


पूर्व मध्यकाल में चित्रण शैली में विकार के थोड़े थोड़े चने प्रकट होने लगे थे गुजरात में चित्रण परंपरा में विकार बहुत अधिक छलक आया था गुप्तकालीन प्रशासन प्रताड़ित कम से ज्ञात होता है की गुजरात में कुछ घुमक्कड़ चितेरे स्याही की मोटी रेखाओं से उल्टे सीधे चित्र बनाते थे मुसलमानों के आक्रमण एवं लूटपाट में सुख समृद्धि एवं कला वैभव से परिपूर्ण इस प्रदेश को जर्जर पारित कर दिया एवं अन्य राज्य उजड़ गए और बर्बर कृत्य में संपूर्ण कलानिधि नष्ट हो गई।

इन लुटेरों ने यहां की कलाकृतियों को विधान से करना अपना पहला कृत्य माना क्योंकि इस्लाम धर्म में कला चित्र करना मना था मुसलमानों के आक्रमण से ग्रस्त पौधे चित्रकार पूर्वी भारत में चले गए थे अतः अच्छे चित्रकारों का अभाव चित्रकारों की अधिक मांग तथा इरानी व मुस्लिम प्रभाव से शैली में गिरावट आ गई फिर भी जैन मंदिरों में बने उनमें जो मूर्तियां बनी वह प्राचीन गौरव से दूर थी उनमें अति भांग कोरिअर तराश वच स्थलों का अत्यधिक कंदूक सदृश्य उपहार नाक लंबी व नीली आंखें लंबी कोरी दर्शाई गई हैं।

अपभ्रंश शैली चित्रण पारिपाटी की खोज का प्रथम श्रेय लेख 1913 ईस्वी में बर्लिन के बोल्कर कुंडे संग्रहालय की संग्रहित कल्पसूत्र वाली प्रति पर श्री हरमैन का था। उसके बाद सन् 1924 में आनंद कुमार स्वामी का बोस्टन संग्रहालय की संग्रहीत वाले चित्र के आधार पर एनसी मेहता का सन 1925 सन 1927 वाले सन 1928 के अजीत घोष वाले 1929 के ब्राउन वाले लेखों के अनुसार इस चित्र शैली के विशेष चित्रों की खोज प्रारंभ हुई।

अपभ्रंश शैली में दो चित्र ग्रंथ अत्यधिक प्रसिद्ध हुए जिनमें ताडपत्री ग्रंथ चित्र और कागज वाले चित्र प्रसिद्ध हैं।

अपभ्रंश शैली की विशेषताएं


  • चित्रों की मानव आकृतियों में एकरूपता हो गई उनमें भावों की अभिव्यक्ति समाप्त हो गई।
  • आकृतियों की संरचना वेशभूषा तथा मुद्राएं रूढ़ हो गई थी।
  • प्रेस अभिमुख आकृतियां सभा चश्मा चित्रित की गई जिनकी निकली लंबी नाक पतली गाल के बाहर निकली होती थी।
  • अंग भंगीमाएं तथा मुद्राएं जकड़ी हुई प्रतीत होती थी।
  • प्रकृति का प्राकृतिक रूप से समाप्त हो गया उसे अलंकारिक बनाया गया पशु पक्षी कपड़े के खिलौने जैसे लगते थे।
  • प्रा चित्रों की विषय वस्तु ग्रंथ के उत्कृष्ट की विषय वस्तु से पृथक भी हो जाती थी।
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