राजस्थानी चित्रशैलियां एवं उनकी विशेषता| Rajashthani Chitrashailiyan

राजस्थानी चित्रशैलियां एवं उनकी विशेषता| Rajashthani Chitrashailiyan

राजस्थानी चित्रशैलियां  एवं उनकी विशेषता| Rajashthani Chitrashailiyan


 राजस्थानी चित्रशैलियां 

15 वी शताब्दी में भारत में धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान की व्यापक लहर आई। रामानंद, कबीर ,चैतन्य आदि भक्त कवियों से भक्ति आंदोलन का विस्तार हुआ हिंदू तथा मुस्लिम शासकों की प्रेरणा से भारतीय तथा ईरानी तत्वों के सम्मिश्रण से नई शैलियों का विकास हुआ। राजस्थानी शैली की खोज का श्रेय डॉ आनंद कुमार स्वामी को जाता है उन्होंने इसे राजपूत शैली नाम दिया जो बाद में राजस्थानी शैली हो गई।

बांसी ग्रह ने हम्जानामा के चित्रों में अपभ्रंश शैली के चित्रों के प्रभाव को उद्धृत करते हुए राजस्थानी शैली की उत्पत्ति का समय 1550 से 75 ईसवी माना है। कार्ल खंडाला वाला राजस्थानी शैली का उदय के बाद का मानते हैं।

           राजस्थानी शैली का विकास         


राजस्थानी शैली का विकास अपभ्रंश तथा उसके विकसित रूप चौरपंचासिका समूह के चित्रों से हुआ और अकबर के समकालीन होने के परिणाम स्वरुप मुगल का प्रभाव धीरे-धीरे इसमें आता चला गया। प्रारंभिक राजस्थानी शैली की वेशभूषा, हकदार, जामा ,पगड़ी ,पायजामा व पटका हम्जानामा के चित्रों में भी दिखाई देते हैं।

युद्ध के दृश्य तथा कृष्ण की बाल लीलाओं के भी अनेक चित्र इस शैली से प्राप्त हुआ । गुजरात की राजस्थानी शैली के चित्रों में बड़े आकार के चित्र बनने लगे तथा पृष्ठभूमि में प्रकृति के साथ मानव आकृतियों का लयात्मक चित्रण होने लगा। अकबर की उदारवादी तथा कलात्मक प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप संगीत की उन्नति हुई राग रागिनी यों के चित्रों में प्राकृतिक संयोजन में बदलाव आया तथा रंग अधिक चटक होने लगे।

स्थानीय विशेषताओं के कारण राजस्थान के विभिन्न केंद्रों पर विकसित चित्रशैलियां विभिन्न नामों से जानी जाने लगी, इनमें प्रमुख शैलियां इस प्रकार हैं मेवाड़, नाथद्वारा ,किशनगढ़ ,जोधपुर, बीकानेर ,बूंदी ,कोटा ,जयपुर ,अलवर आदि राजस्थान के अतिरिक्त मालवा तथा बुंदेलखंड क्षेत्र में भी नई शैलियों के केंद्र बने हुए थे।


           राजस्थानी शैली का विषय वस्तु          

श्रृंगार रस

राजस्थानी चित्रों का प्रमुख विषय प्रेम रहा है नारी के विविध रूपों का चित्र अत्यंत सूक्ष्मता से किया गया है। केशव की रसिकप्रिया बिहारी सतसई अमरूद शतक तथा रसमंजरी आदि ग्रंथों के आधार पर चित्रकारों ने मनोयोग से चित्र रचना की। नायिका भेद की चित्र में अष्टनायिका को आधार बनाया गया है नायिकाओं के विभिन्न नाम इस प्रकार है।

  1. प्रेषित पतिका
  2. खंडिता
  3. कलहान्तरिता
  4. विप्रलब्धा
  5. वासक सज्जा
  6. उत्का
  7. अभिसारिका
  8. आगतपतिका
  9. प्रवत्स्यत प्रेयसी 
प्रकृति एवं बारहमासा

बारहमासा एवं ऋतु वर्णन कवियों का प्रिय विषय रहा केशवदस रसाल कवि तथा सेनापति की कविताओं पर विशेष रूप से बारहमासा चित्र बने। उदाहरण के लिए श्रावण तथा भादो में वर्षा की फुहारों में भीगते प्रेमी जंग हवा से अस्त-व्यस्त वस्त्रों वाली नायिकाएं नाचते मोर प्रियतम के साथ जुड़ती नाय काय आकाश में बबलू की पंक्ति सरोवरों में क्रीड़ा करते पक्षी आदि का चित्रण किया गया ।

भक्ति चित्र

15 वी शताब्दी में भक्ति की जो धारा देश भर में व्याप्त हुई थी राजस्थान भी उसमें से पूरी तरह सराबोर हुआ था गीत गोविंद श्रीमद् भागवत कथा सूरसागर के आधार पर कृष्ण भक्ति से संबंधित चित्र बने रामकथा विषय के चित्रों का आधार बाल्मीकि रामायण तथा तुलसीदास रामचरितमानस रहे जयपुर में नंद दास एवं किशनगढ़ में नागरी दास की रचनाएं भी चित्रों का आधार बनी। कृष्ण की बाल लीलाओं तथा यौवन की लीलाओं का चित्रण अधिक हुआ। कंदूक क्रीड़ा चंद्र खिलौने दगी चोरी गौचरण वंशी वादन असुर संहारे कालिया दमन गोवर्धन धारण आदि बालिकाओं के साथ रासलीला चीरहरण रासलीला जैसे चित्र भी बने हैं।

ऐतिहासिक तथा दरबारी चित्र

चित्रकार उस समय राजाओं जागीरदारों धनी व्यक्तियों आदि के आश्रम में रहते थे पता है वह अपने आश्रय दाताओं के जीवन प्रसंगों दरबारी जीवन तथा प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं के चित्र बनाते थे। राज सभा तथा शिकार के दृश्य बहुलता के साथ राजाओं के परिवार तथा अंतरंग जीवन के चित्र कम ही हैं। बूंदी के राजा विशन दास किशनगढ़ के राजा सामंत सिंह तथा कोटा के राजा राम सिंह ने अपने जीवन के चित्र बनवाने में विशेष रुचि दिखाई।

व्यक्ति चित्रण

व्यक्ति विशेष का चित्र बनाने की प्रवृत्ति भारतीय चित्रकला के इतिहास में पहली बार राजस्थानी तथा मुगल शैलियों से प्रारंभ हुई। राजाओं रानियों प्रमुख दरबारियों तथा साधु संतों के चित्र अधिक चित्रित हुए हैं।

पशु पक्षी चित्रण

राजाओं तथा जागीरदारों को अच्छी नस्ल के हाथी घोड़े कुत्ते ऊंटों आज को पालने का शौक था दूसरी और मुगल शासक बादशाह जहांगीर की पशु पक्षियों के चित्र में विशेष रूचि थी इसके प्रभाव से राजस्थान में पशु पक्षियों के चित्र अंकित करने का रिवाज चल पड़ा मेवाड़ में हाथियों के चित्र अधिक बूंदी के शासक राम सिंह को पालतू तथा जंगली पशुओं के चित्र में विशेष रूचि थी।

रागमाला


इस युग में साहित्य भक्ति तथा चित्रकला के साथ संगीत की विशेष उन्नति हुई राग रागिनी ऊपर आधारित चित्र बनाने अपभ्रंश शैली में प्रारंभ हो चुके थे इन्हीं चित्रों को राग माला कहा गया राजस्थान बुंदेलखंड तथा मालवा में रागमाला चित्रण बहुत अधिक हुआ।

विचित्र चित्र


कुछ चित्रों में हाथी घोड़े पालकी आज की आकृतियां बनाने में नारियों के शरीर को जोड़ा गया ऐसे कुछ चित्रों में रीत कीड़ा भी दिखाई दी गई है।

हास्य व्यंग के चित्र


कृष्ण का स्त्री वेज कुंभकरण के विशाल शरीर को जगाने के लिए छोटे-छोटे नगाड़े तथा तुरई वादक अफीमची आदि इसी प्रकार के हास्य पूर्ण चित्र हैं।

जल जीवन संबंधित चित्र


आश्रय दाता राजाओं की रुचि से प्रभावित वस्तु का अंकन करते हुए भी राजस्थानी चित्रकार ने ग्रामीण जीवन खेत पनघट तीज त्यौहार सपेरों आदि का भी चित्रण किया है।


             राजस्थानी शैली की विशेषताएं।             


राजस्थानी चित्र शैलियों को समझने के लिए हम इन्हें कई बिंदु के आधार पर आसानी से समझ सकते हैं जो कि निम्न वत हैं-

संयोजन


राजस्थानी चित्रकारों ने चित्र की प्रत्येक वस्तु को विषय वस्तु से संबंधित बनाया है इस प्रकार एक ओर तो विषय और वातावरण का संतुलन बना और दूसरी और प्रत्येक आकृति का पृष्ठभूमि से भावनात्मक संबंध बना।

अलंकारिकता


प्रकृति के उपादानो वृक्षों पशु पक्षियों का अंकन अलंकारिक हुआ है। परिप्रेक्ष्य यथार्थ ना होकर चित्र के संयोजन के अनुरूप किया गया मानवी अंगों का चित्रण कुमाऊं जैसा किया जाने लगा जैसे खंजन नयन ,मत्स्योदर नेत्र सिंह जैसी कटिं आदि।

प्रकृति


राजस्थानी चित्रकारों ने प्रकृति को मानवीय दुख सुख के साथ राग आत्मक संबंध रखने वाली चेतना को सत्ता के रूप में चित्रित किया। मानवीय सुख दुख में भागीदारी करते हुए भी चित्रित किया गया।

ललित कलाओं का समन्वय


राजस्थानी चित्रकला में साहित्य तथा संगीत का विलक्षण समन्वय है।

विषय की व्यापकता


राजस्थानी शैली के चित्रों की विषय वस्तु केवल दरबार तक सीमित नहीं थी उसमें सामाजिक विषयों को भी लिया गया है। दैनिक गृहस्थ जीवन तथा लोक विश्वासों को भी चित्रित किया गया है।

वर्ण


राजस्थानी शैली में सूर्यास्त के समान चटकीले तथा आकर्षक रंगों का प्रयोग किया गया है। टेंपरा शैली में अपारदर्शी रंगों का प्रयोग किया गया है।

रेखा


राजस्थानी चित्रकारों ने बहुत कम रेखाओं का प्रयोग किया है उनका रेखांकन कुशलतापूर्वक किंतु सरल है। रेखाएं अभिव्यक्ति पूर्ण गतिशील स्वस्थ एवं किंचित अलंकारिक हैं। रेखाएं बहुत कोमल तो नहीं है पर इनमें से अपहरण से सहेली की कठोरता निकल गई है।

चेहरे


राजस्थानी शैली में एक चश्मा चेहरे अधिकता से अंकित किए गए हैं। सवा जश्न चेहरे की पहली आंख तथा पर ले गाल के अभाव से जो कुछ बचा रहता है वह एक चश्म चेहरा है।

साहित्य संगीत और चित्रकला का समन्वय


इसमें कला के साथ-साथ संगीत और साहित्य का भी अपूर्व समन्वय हुआ है। मंदिरों में अनेक प्रकार की चित्र रचना की जाती थी । नित्य प्रति संगीत का आयोजन होता था और काव्य माधुरी भी प्रवाहित की जाती थी इसी प्रकार चित्रों में कृष्ण को नायक मानकर किसी राग का अंकन किया जाता था और चित्रों के हास्य तथा ऊपरी भाग में तत संबंधी कविता लिखी रहती थी।


राजस्थानी चित्र कला का विकास समृद्धि केवल एक अथवा दो केंद्रों पर ना होकर आने का दरबारी नगरों राजधानियों मंदिरों तथा सामंतों के ठिकानों पर हुआ धार्मिक प्रतिष्ठानों के अतिरिक्त दरबारी कवियों चित्रकारों संगीतज्ञ शिल्पाचार्य आर्य के सहयोग से राजस्थानी चित्रकला की अविरल धारा अनेक रियासती शैलियों और उस शैलियों में विकसित हो गई।


एक टिप्पणी भेजें

अपना सुझाव दें।

और नया पुराने